काश मुझको पता होता...
कि कितना आसान है
बचपन वाली कच्ची उम्र में
रेत के घर बनाना,
नंगे पांव मिट्टी में खेलना,
बारिश में भीग जाना,
कागज के नाव बनाना,
अपनी जायज-नाजायज फरमाइशों को
पूरा करवाने के लिए झूठ-मूठ का रोना
और फिर डांट खाकर चुपचाप
माँ की ही गोद में सिर रखकर सो जाना
पर बहुत मुश्किल है...!!!
जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही
ज़िंदगी के गणित को समझ पाना
क्या छूटा, क्या पाया ?
कौन रुठा, किसको मनाया और
अपनों से सजी अंजान महफ़िल में
दिल में सौ गमों को छिपा आंखों से मुस्कुराना...
काश मुझको पता होता...
झूठी मोहब्बत, वफा के वादे...
साथ निभाने की कसमें,
कितना कुछ करते है लोग,
सिर्फ वक्त गुजारने के लिए ।
काश मुझको पता होता...
* * *